hot air baloon goa

मदहोश करने वाली भीनी भीनी बारिश की फुहार, मिट्टी से आती सोंधी सोंधी खुश्बू, और घरों के अहातों मे काग़ज़ की नाव चलाते बच्चे. मानसून के दिनों में ऐसे ही कुछ नज़ारा दिखाई देता है गोआ मे. अगर मुझ से पूछा जाए तो गोआ सबसे ज़्यादा खूबसूरत मानसून मे ही नज़र आता है. जब प्रकृति मां जम के बरसती है और हर चीज़ को नया बना देती है.गोआ मे इतना खुश्नुमा और आँखों को सुकून देने वाला नज़ारा आपको मानसून के अलावा शायद ही कभी देखने को मिले.

नॉर्थ गोवा में रहने वाले किशोर कुमार जी जोकि केन्द्रीय विध्यालय में प्रधान आचार्य हैं कहते हैं- ” गोवा हर मौसम में अलग है, दिसम्बर में अगर वो कैथलिक होता है तो एप्रिल में लेटिन अमेरिका और मानसून के साथ पारम्परिक भारत। यहाँ हर गाँव की हर गली का अपना देवता है, जिसके लिए सारा गाँव मिल कर पूजा करता है। गणेश चतुर्थी एक ऐसा त्योहार है जब विदेशों में बसे गोवन लोग भी वापस गोवा आते हैं। इनमे भले ही ज़मीन को लेकर कितना ही विवाद हो लेकिन पूजा के समय सभी एक ही घर में रहते हैं और एक ही रसोई का खाना खाते हैं। 

गोवा को बाहर से देखने वाले उसे केवल चर्चों से ही पहचानते हैं और सोचते हैं कि गोवा में सिर्फ़ ईसाई बस्ते हैं लेकिन गोवा में पुर्तगालियों से पहले से हिन्दू समाज के भव्य अस्तित्व के प्रमाण देखे गए हैं। जब पुर्तगालियों का समय आया तो उन्होंने हिन्दू संप्रदाय को घरों में अपने इष्ट देवताओं की मूर्ति भी नहीं रखने दी। ऐसे में हिन्दू लोग देवी देवताओं की तस्वीरें अपनी अलमारियों में कपड़ों के नीचे छुपा कर रखते थे  । और पूजा अर्चना किया करते थे। फिर जब गोवा पुर्तगालियों से आज़ाद हुआ तो उन्हें पूरी स्वतंत्रता से अपने देवों की पूजा करने का अवसर मिला। तभी से यहाँ का हिन्दू सम्प्रदाय अपने त्योहार बड़े जोरशोर से मानते हैं। आपको जान कर हैरानी होगी लेकिन गोवा में होली पूरे एक सप्ताह तक मनाई जाती है ।

गोआ को मुख्य रूप से दो हिस्सों मे बाँट कर देखा जाता है नॉर्थ गोआ और साउथ गोआ. नॉर्थ गोआ मे जहाँ मौजें हैं, मस्ती है, बीच हैं और नाचते गाते हिप्पी हैं वहीं साउथ गोआ मे प्रकृति है, जंगल हैं, गाँव हैं, नदियाँ हैं झरने है, लोग हैं और इन सब के बीच एक लय है, सुर है, रिद्मम है.

आम तौर पर गोआ को सब लोग जानते हैं बीचों के लिए और एक ऐसे राज्य के रूप मे जो कभी पुर्तगालियों की कॉलोनी रहा था. लेकिन बात यहाँ ख़त्म नही होती दोस्त. गोआ पुर्तगालियों के भारत आने से पहले से धड़कता है यहाँ के लोकल लोगों के दिलों मे उनकी परंपराओं मे और उनके अनोखे त्योहारों मे. तो चलिए आप को रूबरू करवाते हैं ऐसे ही कुछ अतीत की यादों से जुड़ी परंपराओं से इस मानसून फेस्टिवल के ज़रिए.

गोआ के लोग हर मौसम को खुशी माना कर सेलिब्रेट करते हैं फिर चाहे वो याद अतीत में किसी दुखद घटना के रूप मे ही क्यूँ ना रही हो. ऐसा ही एक फेस्टिवल है बोंदरम. यह फेस्टिवल हर साल अगस्त के चौथे शनिवार को पंजिम से 12 किलोमीटर दूर एक खूबसूरत आइलैंड जिसका नाम दीवार आइलैंड है मे मनाया जाता है.

Bonderam
Bonderam Festival

बॉन्डरम शब्द का अर्थ पुर्तगाली भाषा मे झंडा होता है. इसलिए इस फेस्टिवल को फ्लैग फेस्टिवल भी कहा जाता है.इस फेस्टिवल के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है. आज से 450 वर्ष पूर्व जब पुर्तगालियों ने गोआ मे शासन किया तब दीवार गाँव के दो संप्रदायों के बीच अक्सर ज़मीन को लेकर विवाद रहता था. जिसके चलते अक्सर यहाँ हिंसा भी भड़क उठती थी. इस समस्या से निपटने के लिए पुर्तगाली सरकार ने एक हल निकाला और उन्होने झंडों के इस्तेमाल से भूमी पर सीमाएँ तय कीं. इस व्यवस्था से गाँव के दोनो पक्ष खुश नही थे और वह निशाना लगा कर मार्क किए झंडों को गिरा देते थे. पुर्तगाली सरकार के खिलाफ  गाँव वालों के उसी आंदोलन की याद मे आज यह फेस्टिवल मनाया जाता है. आज लोग इस फेस्टिवल मे सचमुच मे पत्थरबाज़ी नही करते, लेकिन उसकी याद मे एक दूसरे पर निशाना लगाने का खेल खेलते हैं. हमेशा शांत रहने वाला दीवार आइलैंड इस दिन पूरे फेस्टिवल मूड मे आ जाता है. लोग दूर-दूर से इस फेस्टिवल मे हिस्सा लेने आते हैं.  फेस्टिवल शुरू होने से पहले एक रंगारंग परेड देखने को मिलती है. जिसमे गाँव के लोग अलग-अलग झाँकियाँ निकालते हैं. गीत संगीत और नृत्य करते हुए लोग इस परेड मे जान डाल देते हैं. इसे हार्वेस्ट फेस्टिवल के रूप मे भी जाना जाता है. सही मयनो मे देखा जाए तो यह गोआ की कोंकणी संस्कृति एवं ग्राम्य जीवन से रूबरू होने का एक नायाब ज़रिया है. मछवारों का कोली डांस, फल और सब्ज़ियों से सजी फेंसी ड्रेस और झाकियां यहाँ के ग्रामीण जीवन की एक अलग छठा प्रस्तुत करती हैं। लोग बढ़ चढ़ कर इस परेड मे हिस्सा लेते हैं.

चिकल कालो फेस्टिवल

Chikalkalo

भगवान कृष्ण अपने बचपन मे दोस्तों के साथ किस तरह वर्षा ऋतु का आनंद उठाते होंगे अगर इसका जीता जागता सबूत देखना है तो गोआ जाइए. चीकल कालो को मड फेस्टिवल भी कहते हैं. इस फेस्टिवल को भगवान कृष्ण की बाल क्रीड़ाओं को याद करके मनाया जाता है, जब वो बारिश मे अपने दोस्तों के साथ मड मे खेलते थे.

यह भी गोआ का एक लोकल फेस्टिवल है और यह आषाढ़ के महीने के 11ह्वें दिन मनाया जाता है. जोकि जुलाई के दूसरे या तीसरे सप्ताह मे पड़ता है. यह फेस्टिवल पंजिम से 17 किलोमीटर दूर पोंडा के मार्स्ल गाँव मे देवकी कृष्णा मंदिर के प्रांगण मे मनाया जाता है. फेस्टिवल के 24  घंटे पहले से मंदिर मे भजन कीर्तन शुरू हो जाता. मंदिर का प्रांगण बारिश के कारण मिट्टी और मड से भर जाता है. फेस्टिवल मे भाग लेने वाले अपने शरीर पर तेल लगा कर खेलने आते हैं. यह गोआ का एक अनोखा फेस्टिवल है जिसका संबंध हिंदू संप्रदाय से है.इस दिन गाँव का हर पुरुष सदस्य चाहे व बच्चा हो या बूढ़ा कृष्ण के स्वरूप मे नज़र आता है. इस फेस्टिवल में दही हांड़ी का खेल भी देखने को मिलता है।

जैकफ्रूट फेस्ट

यह ऐक ऐसा फेस्टिवल है जोकि समर्पित है कटहल को, जी हाँ. आपको विश्वास नहीं होगा मगर गोआ मे कटहल को फल और सब्ज़ियों का राजा माना जाता है. साओ जोवो फेस्टिवल के दौरान गोआ के गाँवों मे इस फेस्टिवल को मनाया जाता है. जहाँ गोअन ग्रामीण जीवन का मुख्य खाना मछली वा अन्य मासाहारी व्यंजन और शराब के बिना अधूरा माना जाता है वहीं यह एक ऐसा फेस्टिवल है जो की पूरी तरह से शाकाहारी है. यहाँ के निवासी सचिदानंद जी जोकि एक होम शेफ भी हैं, कहते हैं- कि जैकफ्रूट से लगभग 100 से भी ज़्यादा खाने की रेसेपी तैयार की जा सकती है. प्रकृति मां का अनमोल उपहार है जैकफ्रूट, हम गोआ वासियों के लिए. इस पेड़ की हर चीज़ उपयोगी है. लकड़ी से लेकर फल फूल यहाँ तक की पत्ते भी. इसके बीज से कॉफी जैसा एक पेय  पदार्थ भी तैयार किया जाता है। इस फेस्टिवल मे आने वाले लोगों के लिए गाँव वाले जैकफ्रूट के पेड़ की टहनियों और पत्तो से क्राउन बनाते है. लोग फलों और सब्ज़ियों से अपने परिधानो को सजाकर प्रकृति का शुक्रिया अदा करते हैं. इस उत्सव मे जैकफ्रूट से तैयार लज़ीज़ पकवान परोसे जाते हैं.

साओ जोवो फेस्टिवल

यह फेस्टिवल भी मानसून फेस्टिवल है. जिसका संबंध केथलिक समाज से है. इस उत्सव का संबंध ईसाई धर्म की लोक मान्यताओं और प्रभु इशू के जन्म से जुड़ा है. यह फेस्टिवल समर्पित है संत जॉन को.  लोग दरिया की धारा मे नावों द्वारा अपने अपने गाँवों से आकर मिलते हैं और खुशी मनाते हैं. इस फेस्टिवल मे लोग अपनी नावों को भी खूब सजाते हैं. लोग खूब फ्रूट्स खाते हैं और शराब पीते हैं. और प्रतीकात्मक रूप से नदी, तालाब या बावड़ी में ख़ुशी के साथ छलांगें लगाते हैं।

यह फेस्टिवल मछवारों की कम्यूनिटी मे खास तौर से मनाया जाता है. वैसे तो पूरे गोआ मे यह फेस्टिवल मनाया जाता है लेकिन मुख्य रूप से यह सिलोमी गाँव मे सेलिब्रेट किया जाता है.

मानसून में ट्रैकिंग का आनंद

दोस्तों आप किसी से भी पूछ लीजिये भारत में मॉनसून सबसे ज़्यादा खूबसूरत कहाँ लगता है। आपको एक ही जवाब मिलेगा कि वेस्टर्न घाट. जिसे पश्चिमी पठार भी कहते हैं। 1600 किलोमीटर लम्बी यह पर्वतश्रंखला विश्‍व में जैविकीय विवधता के लिए पूरी दुनिया में आठवें पायदान पर आती है। इसी लिए यूनेस्को ने इसके 39 स्थानों को विश्व धरोहर के रूप में चिन्हित किया है। और मज़े की बात यह है कि यह वेस्टर्न घाट गुजरात और महाराष्ट्र की सीमा से शुरू होकर महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा केरल से होकर कन्याकुमारी तक फैले हुए है।

इस क़ुदरत के अनमोल ख़ज़ाने का कुछ बेहद ख़ास हिस्सा गोवा के दामन में भी फैला हुआ है जोकि बारिश के मौसम में ट्रैकिंग प्रेमियों के लिए स्वर्ग के समान है।

जब जंगलों में हरयाली के बीच ऐसे ही जगह जगह बरसाती झरने फूट पड़ते हैं। पूरा जंगल एक तिलिस्मी महक से जाग जाता है। जब किसी सजीले शर्मीले पक्षी की कूक सन्नाटे को गुंजायमान कर जाती है। तब असली मज़ा आता है। ऐसे जंगलों में ट्रैकिंग करने का। जहाँ सिर्फ प्रकृति हों और आप हों। कितना सुहाना और अनोखा अनुभव है कि आप  भीगे भीगे जंगल में जा रहे हों और अचानक आपका बैग पैक किसी झाड़ी से टकराए और उस झाड़ी से हज़ारों छोटी छोटी पीली तितलियाँ फुर्ररर से उड़ने लगें।

इन जंगलों में कई खूबसूरत वॉटरफॉल हैं जैसे, कुमठाड़ फाल्स, दूधसागर वॉटरफॉल, चोरला वाटरफॉल्स और पाली वॉटरफॉल। हाँ एक बात ज़रूर बताना चाहूंगी इन वाटरफॉल्स के बारे में। कुछ बेहद शानदार देखने के लिए थोड़ी मेहनत तो करनी पड़ती है न। इसलिए बिना जंगल में ट्रैकिंग किये आप उस अनमोल नज़ारे के साक्षी नहीं बन सकते।

वाइल्ड लाइफ सेन्चुरी भी हैं ख़ास

गोवा क्यूंकि वेस्टर्न घाट का हिस्सा है और जैविकीय विवधता यानि बायो डायवर्सिटी का ऐसा क्षेत्र है जोकि वाइल्ड लाइफ के लिए बेहद अनुकूल है।

कोटीगांव वाइल्ड लाइफ सेंचुरी

गोवा कर्णाटक के बॉर्डर पर स्थित कोटीगांव वाइल्ड लाइफ सेंचुरी नेचर का एक वरदान है गोवा राज्य को। आप इस खूबसूरत वाइल्ड लाइफ सेन्चुरी में ठहर भी सकते है। इसके लिए आपको फारेस्ट ऑफिस में पहले से गेस्ट हॉउस बुक करना होगा। आप इस सेंचुरी में हिलटॉप हाईकिंग कर सकते हैं, इस घने जंगल के भीतर रहने वाले गोवा के बहुत पुरानी आदिवासी समुदाय वेलिप और कुनबिल लोगों से मिल सकते हैं।  यह सेंचुरी नेचर लवर्स के लिए विशेष महत्व रखती है। यहाँ कुछ बेहद प्राचीन पेड़ मौजूद हैं। यहाँ का जंगल इतना घना है कि कहीं कहीं तो सूरज की रौशनी भी नहीं पहुँचती।

भगवान महावीर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी

dudhsagar waterfall
Dudhsagar waterfall

जब वाइल्ड लाइफ सेंचुरी की बात छिड़ी है तो भगवान महावीर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी की बात न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता। आप इस वाइल्ड लाइफ सेंचुरी को दूधसागर वॉटरफॉल के लिए ज़्यादा कनेक्ट करेंगे। 240 स्क्वॉयर किलोमीटर में फैली यह सेंचुरी अपने में बहुत ख़ास है। पीछे पहाड़ों की चोटी से निकल, दूध की तरह चमकती सफ़ेद पानी की धारा और आगे से पुल पर गुज़रती भारतीय रेल एक ऐसा द्रश्य पैदा करते हैं कि इंसान कुछ देर तक तो अपने होश ही गँवा दे। यह सजीला द्रश्य इसी वाइल्ड लाइफ सेंचुरी के अंदर का है। अगर आप ट्रैन में बैठ कर इस अनोखे द्रश्य को देखना चाहते हैं तो कोंकण रेल के मैंगलोर से मारगाओ रुट पर ट्रेन से यात्रा करें और खिड़की से आती दूध सागर वॉटरफॉल की फुहार से भीगने का आनंद उठाएं।

इस सेन्चुरी में भीतर कई जंगल रिसोर्ट और फॉरेस्ट गेस्ट हॉउस भी हैं। यहाँ प्रकृति का पूरी तरह आनंद लेने के लिए ज़रूरी है कुछ दिन सेंचुरी के अंदर ही बिताएं।

वाइट वॉटर राफ्टिंग महादेई रिवर में

मॉनसून की फुहारें शुरू होते ही जहाँ पूरा गोवा तर बतर हो जाता है वहीँ  वाइट वॉटर राफ्टिंग के मतवालों के लिए जून माह से महादेई रिवर में गोवा टूरिज्म की ओर से वॉटर राफ्टिंग का आग़ाज़ भी कर दिया जाता है। और यह सिलसिला जून से सितम्बर तक चलता है। महादेई रिवर वैली से यह यात्रा शुरू होती है। रोमांच से भरपूर इस वाइट वॉटर राफ्टिंग के संचालन का ज़िम्मा प्रोफेशनल्स के हाथों में होता है और सुरक्षा से सम्बंधित सभी पहलुओं की देखभाल पहले से ही सुनिश्चित की जाती है।

ट्रॉपिकल प्लांटेशन

गोवा की समृद्धि में यहाँ के ग्रामीण किसानों की मेहनत और कुदरत दोनों का ही बड़ा योगदान है। इसकी खूबसूरत तस्वीर हमें देखने को मिलती है गोवा के उन गांवों में जहाँ ट्रॉपिकल प्लांटेशन किया जाता है। इन गांवों का रास्ता नारियल के ऊँचे ऊँचे झाड़ों से होकर गुज़रता है। और मज़े की बात यह है कि यह नज़ारे पंजिम से सिर्फ 30-35 किलोमीटर के दायरे में ही हमें देखने को मिल जाते हैं। ऐसा ही एक गांव है केरी जोकि पोंडा तहसील में पड़ता है। जहाँ ट्रॉपिकल इस्पाईस प्लांटेशन देखने को मिलता है।

खेतों में किस तरह लोग सुपारी, मसाले और काजू की खेती करते हैं। वहीँ नज़दीक काजू को प्रोसेस करने की फेक्ट्री भी देखी जा सकती है। इसके अलावा यहाँ इस्पाईस प्लांटेशन के लिए गाइडेड टूर की भी व्यवस्था है। और यहाँ गांव में लोकल लोगों के साथ गोवा का फ़ूड केले के पत्ते पर खा कर आप अपनी इस यात्रा को और भी यादगार बना सकते हैं।

फिश फार्मिंग ट्रेल

गोवा के जीवन का अभिन्न अंग है फिश, और यहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय भी है। आखिर इस प्रदेश के पास 104 किलोमीटर लम्बी कोस्ट लाइन और लगभग 250 इनलैंड वॉटरवेज़ जो हैं। यहाँ पांच बड़ी नदियां भी है और गोवा सरकार फिश फार्मिंग के लिए बड़ा योगदान देती है ताकि यहाँ की स्थानीय मछवारों को सहयोग दिया जा सके। जिस राज्य की 95 प्रतिशत जनता का मुख्य भोजन फिश हो वहां पर फिशिंग फार्मिंग ट्रेल तो देखना बनता है। मछवारों के गांवों में जाकर उनके बीच एक दिन गुज़ारना बहुत सुहावना है। मछली पकड़ने के आधुनिक और परम्परागत तरीकों को नज़दीक से देखना भी एक अनुभव है। अगर आप सी-फ़ूड के शौक़ीन हैं तो इन गांवों में जाकर आप कई प्राचीन तरीकों से पकी मछली और अन्य सी-फ़ूड का आनंद ले सकते हैं।

ज़ायके गोवा के-गोअन फ़ूड

गोवा की यात्रा तब तक अधूरी मानी जाएगी जब तक गोवा के खाने का ज़िक्र न हो। गोवा के खानों पर सबसे पहला प्रभाव कोंकणी खानों का पड़ता है। यह बात पुर्तगालियों के आने से पहले की है। उसके साथ ही मुस्लिम शासकों और पुर्तगाली उपनिवेश के खाने भी यहाँ की रंगत में रंग गए। गोवा के खानों में सबसे ज़्यादा वैराइटी मिलती है सी फ़ूड की। भांति भांति की मछलियां और उनको पकाने के अपने अपने तरीके।  अगर आप मछवारों के गांवों का रुख करेंगे तो पाएंगे कि कहीं कहीं आज भी मछली पकाने की आदिम पद्धति जीवित है। मछली को नमक हल्दी और नीबू से मेरिनेट कर केले के पत्ते में लपेट कर आस पास से इकट्ठा किया गया फूस के बीच रख उस फूंस में आग लगा दी जाती है और कुछ ही मिनटों में मज़ेदार मछली पक कर तैयार। जहाँ फिश फ्राई और फिश करी मुख्य रूप से कोंकणी खान पान का हिस्सा है वहीँ पुर्तगालियों से गोवा ने खानों को बेक करना सीखा। कर्णाटक और महाराष्ट्र से लगे होने के कारण गोअन खानों में यहाँ के मसाले और सब्ज़ियों का समावेश हुआ।

आप ऐसे ही बने रहिये मेरे साथ, भारत के कोने-कोने में छुपे अनमोल ख़ज़ानों में से किसी और दास्तान के साथ हम फिर रूबरू होंगे। तब तक खुश रहिये और घूमते रहिये।
आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त
डा० कायनात क़ाज़ी

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