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नेहरू ट्रॉफी बोट रेस अलप्पुज़हा, केरला

कोचीन से 80 किलोमीटर दूर एक छोटा-सा शहर है अलप्पुज़ा, लेकिन यह शहर पूरी दुनिया मे मशहूर है।  आप सोचते होंगे ऐसी क्या बात है यहाँ। जी हाँ, आज हम आप को ले आए हैं ऐसे ही एक उत्सव मे जिसकी धूम पूरी दुनिया मे होती है।

इसका कारण है यहाँ हर साल अगस्त के हर दूसरे शनिवार को आयोजित की जाने वाली नेहरू ट्रोफी बोट रेस।

यह रेस अपने मे अनोखी रेस है। जिसमें हर साल बहुत सारी स्नेक बोट हिस्सा लेती हैं।  इस रेस मे भाग लेने के लिए आस पास के गाँवों से स्नेक बोट्स आती हैं।  पूरा शहर कई दिन पहले से इस रेस की तैयारी मे जुट जाता है।

अलहप्पुज़ा मे पुन्नमडा लेक मे यह रेस आयोजित की जाती है। इस रेस का नाम नेहरू ट्रोफी बोट रेस कैसे पड़ा इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है।  हुआ यूँ कि सन् 1952 मे पंडित जवाहर लाल नेहरू केरल की यात्रा पर थे और वह बोट से अलहप्पुज़ा तक की यात्रा कर रहे थे।  पंडित नेहरू की इस यात्रा के स्वागत मे यहाँ के लोकल लोग बहुत उत्साहित थे।  उन्होने पंडित नेहरू के स्वागत मे उनकी बोट के साथ कुछ लोकल स्नेक बोट्स भी चल रही थीं।  इन बोट्स को चलाने वाले ऊर्जा से भरे हुए नौजवानों ने रेस लगाई और इस तरह इस रेस की शुरुवात हुई। पंडित नेहरू लोकल लोगों के इस आपसी सौहार्द और प्रतिस्पर्धा के स्वस्थ प्रदर्शन से इतने प्रभावित हुए कि वापस दिल्ली आकर उन्होने चाँदी की एक बोट के आकर की ट्रोफी बनवाई और इस रेस को समर्पित की।  तभी से इस रेस की शुरुवात हुई।

स्नेक बोट रेस का इतिहास

वैसे अगर इतिहास के पन्नों को पलट कर देखा जाए तो  आज से 400 साल पहले त्रावंकोर के राजाओं मे स्नेक बोट रेस करवाने के प्रमाण मिलते हैं।  और इन रेसों के लिए उत्साहित राजा बड़ी शिद्दत से बोट बनवाते थे।  इन बोट की लंबाई 128 फीट होती थी।  बोट को मज़बूती देने और किसी भी प्रकार के आक्रमण को सहने के लिए तरह तरह के नुस्खे आज़माए जाते थे। यहाँ तक की प्रतिद्वंदी राजाओं द्वारा बनवाई जा रही बोट की जासूसी के लिए राजा लोग अपने गुप्तचरों का सहारा भी लिया करते थे।  उस दौर से लेकर आज तक केरल की इन बोट रेसों मे प्रतिस्पर्धा अपने चरम पर देखी जाती है।

कुछ खास हैं यह स्नेक बोट्स

नेहरू ट्रोफी बोट रेस की हर बोट एक गाँव का प्रतिनिधित्व करती है। इस बोट मे 100 से लेकर 140 कुशल नाविक सवार होते हैं।  इन नाविकों मे हिंदू, ईसाई, मुस्लिम आदि सभी साप्रदाय के लोग एक दूसरे के साथ मिलकर हिस्सा लेते हैं। सांप्रदायिक सौहार्द की इससे सुंदर मिसाल कहीं और देखने को नही मिलती।

1400 मीटर लंबे इस ट्रेक को भली प्रकार समझने के लिए अनुभवी नाविक पहले से प्रेक्टिस करते हैं ताकि किसी भी हाल मे रेस जीती जा सके।

अगर यहाँ के लोगों की माने तो यह रेस भारत मे आयोजित होने वाले प्राचीनतम वॉटर स्पोर्ट्स मे से एक है।

यह खेल है परस्पर सहयोग और टीम स्प्रिट का।  जहाँ मज़बूत भुजाओं वाले नाविक एक लेय मे चप्पू से नाव को खेते हैं वहीं इनके बीच बैठे हुए गायक अपने साथियों का उत्साह बढ़ने के लिए बोट सॉंग्स गाते हैं।  इन्हीं के साथ दो ड्रमर होते हैं तो बड़ी ऊर्जा के साथ ड्रम बजा कर अपने नाविकों मे जोश भरते हैं।

हर नाव का एक टीम लीडर भी होते हैं, जोकि बड़ा अनुभवी होता है।  वह लगातार सीटी बजा कर नाविकों को निर्देश देता रहता हैं। उन लोगों का उत्साह देखने वाला होता है।

नेहरू ट्रोफी बोट रेस एक तरह से यहाँ के आस पास के गाँवों मे रहने वाले ग्रामीण समुदायों का अपना उत्सव है।  यहां आई हर बोट किसी ना किसी गाँव का प्रतिनिधित्व करती है। अपने गाँव की बोट को चियर करने पूरा गाँव भी साथ आता है।  और लेक में बने रेसिंग ट्रेक के सहारे सहारे बैठ कर अपने गाँव की बोट को चियर करता है।

उत्तम क्वालिटी की लकड़ी का प्रयोग कर लोग स्नेक बोट तैयार करते हैं।  128 से लेकर 140 फिट लंबी स्नेक बोट को खूब मछली का तेल पिलाया जाता है ताकि वो पानी पर बड़ी आसानी से चलती जाए।

आज इस रेस की तैयारी लोग साल भर करते हैं।  क्यूंकि यह बोट रेस मानसून के समय मे होती है इसलिए यहाँ पानी भी बहुत होता है। इस बोट को चलाने के लिए एक मज़बूत शरीर वाला एथलीट होना ज़रूरी है।

यहां कॉंपिटीशन इतना काँटे का होता है कि यह लोग तीन-तीन महीने पहले से प्रेक्टिस सेशन्स करते हैं और इन सेशन्स की वीडियोग्राफी भी की जाती है, फिर बारीकी से उस वीडियोग्राफी को रिव्यू किया जाता है, जिससे कि ग़लती मे सुधार किया जा सके।

रेस से पहले बोट जिसे चंदन कहा जाता है को 2-3 दिन पहले ही पानी से निकल लिया जाता है।  और सुखाया जाता है। जिससे रेस वाले दिन बोट हल्की रहे और पानी पर आसानी से तैर सके।

मुख्य रेस के दिन बोट की पूजा की जाती है और अपने आराध्या देव से विजय की अर्ज़ी लगा कर बोट पानी मे उतारी जाती है।

यहाँ महिलाओं की बोट भी होती है।  पारंपरिक केरल की ज़री बॉर्डर वाली सफेद साड़ी मे सजी महिलाएँ बोट रेस मे पुरुषों के बराबर ही पूरे उत्साह के साथ हिस्सा लेती हैं।

फोटोग्राफी टिप्स:

नेहरू ट्रोफी बोट रेस के एक्शन शॉट्स क्लिक करना तोड़ा मुश्किल काम है जिसके लिए थोड़ी प्लानिंग की ज़रूरत है।

यहां आपको ज़ूम लेंस से ही अच्छी तस्वीरें मिल सकती हैं। इसलिए 300 एम एम से ऊपर का ज़ूम लेंस लेकर जाएँ।

एक्शन फ़्रीज़ करने के लिए शटर स्पीड 1/1000 रखें।

अगर आप रेस का फ्रंट व्यू लेना चाहते हैं तो वो शाट एंड पॉइंट से ही लिया जा सकता है जिसके लिए आपको पहले से टिकट लेनी होगी।  वहाँ पर एंट्री लेने और सही जगह मिलने के लिए थोड़ा पहले जाएँ।

कोशिश करें की आप अलहप्पुज़ा दो एक दिन पहले पहुँचें जिससे कि प्रेक्टिस सेशन की तस्वीरें मिल जाएँ।

रेस दिन मे 1 बजे के आसपास होती है।  इसलिए अपनी पोज़ीशन का ध्यान रखें।  अगर आप बड़ी हाउस बोट पर चले गए हैं जोकि लेक मे बीचों बीच जाकर एक क़तार मे लग जाती हैं तो आपको अच्छी तस्वीरें नही मिलेंगी।

कोशिश करें होटल रॅमाडा की तरफ ही रहें।

रेस वाले दिन गर्मी और उमस बहुत होती है तो अपने साथ पानी और खाने की व्यवस्था करके चलें।

कब जाएं ?

केरल का अलहप्पुज़ा शहर अपने बैक वाटर्स और आलीशान हॉउसबोट्स  के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। यहाँ वर्ष में कभी भी जाया जा सकता है। लेकिन नेहरू ट्रॉफी बोट रेस देखने के लिए अगस्त माह में ही जाएं।

कैसे पहुंचें ?

अलहप्पुज़ा शहर कोचिन एयरपोर्ट से दक्षिण में 80 किलोमीटर दूर है। जिसे राष्ट्रीय राजमार्ग 47 से पहुंचा जा सकता है।

कोचिन रेल, वायु और सड़क मार्ग से देश के सभी मुख्य शहरों से जुड़ा हुआ है।

kaynat kazi

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