बौद्ध गया
एक अरसे के बाद एक ऐसे स्थान पर जाना हुआ कि दिल ख़ुश हो गया। महात्मा बुद्ध के प्रति विशेष सम्मान है। इसीलिए कुछ वर्ष पूर्व जब वैशाली जाने का अवसर प्राप्त हुआ था तो बहुत आशा के साथ बिहार गई थी। लेकिन वैशाली जैसे अद्भुत स्थल की अव्यवस्थाओं को देख दिल खट्टा हुआ था। हालाँकि लद्दाख से लेकर हिमाचल, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल, सिक्किम आदि राज्यों में मैंने अनेक नयनाभिराम बौद्ध मठ देखे। मुझे इन मठों का स्थापत्य आकर्षित करता है। ख़ासतौर पर दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में तो इनका होना तमाम दुश्वारियों के बाद बहुत सुकून देने वाला होता है। चाहे वो लद्दाख हो या फिर कुल्लू मनाली, मैक्लॉडगंज या हो सिक्किम इन सभी बौद्ध मठों को देखने के लिए आपको लम्बी दूरी तय करनी पड़ती है।
मैंने लद्दाख के मुलबिक में लामायूरू और नुब्रा के मठ भी देखे हैं। कहीं हरे भरे पहाड़ों के बीच तो कहीं वनस्पति विहीन उजाड़ रेतीले खुरदुरे पहाड़ों के बीच यह लाल रंग के मठ ऊर्जा का स्रोत नज़र आते हैं। यहाँ रहने वाले बौद्ध भिक्षु हमेशा एक सरल मुस्कान से आपका स्वागत करते हैं।
ख़ैर मैं बात कर रही थी बौद्ध गया की। जोकि बिहार के गया जिले में फल्गु नदी बसा एक संभाग है। यहाँ मात्र 3 किलोमीटर के दायरे में इतना कुछ है देखने को की यहाँ आना पैसा वसूल समझिए।
भगवान बुद्ध से प्रेम करने वाले लोगों के लिए बौद्ध गया का महत्व बहुत है क्योंकि यही वह स्थान है जहां भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी इसीलिए यह सबसे पवित्र शहर माना जाता है। कहते हैं, करीब 531 ईसा पूर्व में यहां फल्गु नदी के किनारे गौतम बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
बौद्ध गया बिहार के गया जिले के मुख्यालय से 15 किलोमीटर दूर गया जिले का एक संभाग है। जहां पर यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल महाबोधि मंदिर स्थित है।
यह स्थान पूरे विश्व में फैले उन सभी देशों की तीर्थ स्थली है जो बौद्ध धर्म को मानते हैं। इसी लिए मात्र तीन किलोमीटर के दायरे में यहां चीन, जापान, थाईलैंड, बांग्लादेश, मंगोलिया, भूटान और थाईलैंड के द्वारा बनवाए गए प्रार्थना स्थल हैं। यह सभी बौद्ध मठ इन संरचनाओं की स्थापत्यकला के माध्यम से अपने अपने देश की पारंपरिक कला का नमूना पेश करते हैं।
मैंने लद्दाख से लेकर उत्तर पूर्व में बसे राज्यों में अनेक बौद्ध मठ देखे हैं, लेकिन उन सब की यात्राओं के लिए आपको बहुत ज्यादा ट्रैवल करना पड़ता है। आपको एक मोनेस्ट्री देखने जाने के लिए कम से कम 2 से 4 घंटे का ड्राइव करना पड़ता है। जबकि यहां आपको एक दिन के भीतर आप कई सारे बौद्ध मठ देख सकते हैं। वह भी वॉकिंग डिस्टेंस पर। आप शहर में आए और यहां आकर एक ई रिक्शा करें मात्र ₹500 में और वह आपको पूरे क्षेत्र में घुमा देगा वह भी मात्र 4 से 5 घंटे के भीतर। तो अगर आप के पास समय नहीं भी है तो मात्र एक दिन की ट्रिप कर बनाकर भी आप इस महत्वपूर्ण स्थल को देख सकते हैं।
महाबोधि मंदिर
बौद्ध गया की धुरी है यहाँ स्थित महाबोधि मंदिर एवं महाबोधि वृक्ष। इसे वर्ष 2002 में यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित किया गया। जिसके दर्शन करने विदेशों से बौद्ध धर्म के अनुयायी यहाँ वर्ष भर आया करते हैं। सबसे पहले आप महाबोधि मंदिर के दर्शन करने जाएं। महाबोधि मंदिर परिसर भगवान बुद्ध के जीवन से संबंधित चार पवित्र स्थानों में से एक है। इस परिसर में सबसे पहला मंदिर तीसरी शताब्दी ई.पूर्व. में सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था तथा वर्तमान में मौजूद सभी मंदिरों का निर्माणकाल 5वीं या 6वीं शताब्दी के आसपास का है। भारत में गुप्तकाल से आज तक पूर्णतः ईटों से निर्मित यह सबसे प्राचीन बौद्ध मंदिरों में से एक है। यह परिसर 4.8600 हेक्टेयर में फैला हुआ है। बोधगया में वर्तमान महाबोधि मंदिर परिसर में 50 मीटर ऊंचा भव्य मंदिर, वज्रासन, पवित्र बोधि वृक्ष और बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के अन्य छह पवित्र स्थल शामिल हैं, जो कई प्राचीन स्तूपों से घिरा हुआ है, यह भगवान बुद्ध द्वारा वहां बिताए गए समय से जुड़ी घटनाओं के संबंध में पुरातात्विक महत्व की एक अनूठी संपत्ति है. मुख्य मंदिर की दीवार की औसत ऊंचाई 11 मीटर है और यह भारतीय मंदिर वास्तुकला की शास्त्रीय शैली में बनाई गई है। इसमें पूर्व और उत्तर से प्रवेश द्वार हैं। मंदिर का मुख पूर्व की ओर है और इसमें पूर्व में एक छोटा प्रांगण है जिसके दोनों ओर बुद्ध की मूर्तियाँ हैं। एक दरवाज़ा एक छोटे से हॉल में जाता है, जिसके आगे गर्भगृह है, जिसमें बैठे हुए बुद्ध की एक सोने की 5 फीट से अधिक ऊँची मूर्ति है, जो पृथ्वी को अपने प्राप्त ज्ञान के साक्षी के रूप में स्थापित की गई है।
गर्भगृह के ऊपर मुख्य हॉल है जिसमें एक मंदिर है जिसमें बुद्ध की मूर्ति है, जहां वरिष्ठ भिक्षु ध्यान करने के लिए इकट्ठा होते हैं।
पवित्र स्थानों में सबसे महत्वपूर्ण, मुख्य मंदिर के पश्चिम में विशाल बोधि वृक्ष है, जो मूल बोधि वृक्ष का प्रत्यक्ष वंशज माना जाता है जिसके नीचे बुद्ध ने अपना पहला सप्ताह बिताया था और उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। केंद्रीय पथ के उत्तर में, एक ऊंचे क्षेत्र पर, अनिमेषलोचन चैत्य (प्रार्थना कक्ष) है जहां माना जाता है कि बुद्ध ने दूसरा सप्ताह बिताया था। बुद्ध ने तीसरा सप्ताह रत्नाचक्रमा नामक क्षेत्र में अठारह कदम आगे-पीछे चलते हुए बिताया, जो मुख्य मंदिर की उत्तरी दीवार के पास स्थित है। एक मंच पर उकेरे गए पत्थर के उभरे हुए कमल उनके कदमों का प्रतीक हैं। वह स्थान जहां उन्होंने चौथा सप्ताह बिताया वह रत्नघर चैत्य है, जो बाड़े की दीवार के पास उत्तर-पूर्व में स्थित है। केंद्रीय पथ पर पूर्वी प्रवेश द्वार की सीढ़ियों के तुरंत बाद एक स्तंभ है जो अजपाल निग्रोध वृक्ष के स्थान को चिह्नित करता है, जिसके नीचे बुद्ध ने अपने पांचवें सप्ताह के दौरान ब्राह्मणों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए ध्यान किया था। उन्होंने छठा सप्ताह बाड़े के दक्षिण में कमल तालाब के बगल में बिताया, और सातवां सप्ताह मुख्य मंदिर के दक्षिण-पूर्व में राजयतान वृक्ष के नीचे बिताया, जो वर्तमान में एक पेड़ से चिह्नित है। बोधि वृक्ष के बगल में पॉलिश किए गए बलुआ पत्थर से बना मुख्य मंदिर से जुड़ा एक मंच है जिसे वज्रासन (हीरा सिंहासन) के नाम से जाना जाता है, जिसे मूल रूप से सम्राट अशोक ने उस स्थान को चिह्नित करने के लिए स्थापित किया था जहां बुद्ध ने बैठकर ध्यान किया था। बोधि वृक्ष के नीचे एक बलुआ पत्थर के छज्जे से एक बार इस स्थल को घेर लिया था, लेकिन छज्जे के कुछ ही मूल स्तंभ अभी भी यथास्थान हैं; उनमें गढ़े गए मानव चेहरों, जानवरों और सजावटी विवरणों की नक्काशी है। दक्षिण में मुख्य मंदिर की ओर जाने वाले केंद्रीय मार्ग पर एक छोटा सा मंदिर है जिसके पीछे खड़े बुद्ध हैं और काले पत्थर पर खुदे हुए बुद्ध के पदचिह्न हैं, जो तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के हैं जब सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म की घोषणा की थी। जब बौद्ध धर्म राज्य का आधिकारिक धर्म बन गया और उसने अपने पूरे राज्य में ऐसे हजारों पदचिह्न पत्थर स्थापित किये। मंदिर का प्रवेश द्वार, जो केंद्रीय पथ पर है, मूल रूप से इस सम्राट द्वारा बनाया गया था, लेकिन बाद में इसका पुनर्निर्माण किया गया था। मुख्य मंदिर की ओर जाने वाले रास्ते पर आगे एक इमारत है जिसमें बुद्ध और बोधिसत्व की कई मूर्तियाँ हैं। सामने एक हिंदू महंत का स्मारक है जो 15वीं और 16वीं शताब्दी के दौरान इस स्थान पर रहे थे। मार्ग के दक्षिण में राजाओं, राजकुमारों, कुलीनों और आम लोगों द्वारा निर्मित मन्नत स्तूपों का एक समूह है।
इस मंदिर परिसर में ऐसे अनेक स्थान हैं जहाँ बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद का समय बिताया। बुद्ध ने अगले सात सप्ताह ज्ञान प्राप्ति के बाद आसपास के सात अलग-अलग स्थानों पर ध्यान करते और अपने अनुभव पर विचार करते हुए बिताए। वर्तमान महाबोधि मंदिर के कई विशिष्ट स्थान इन सात सप्ताहों से जुड़ी परंपराओं से संबंधित हैं. कहते हैं बुद्ध का पहला सप्ताह बोधिवृक्ष के नीचे व्यतीत हुआ। दूसरे सप्ताह के दौरान, बुद्ध खड़े रहे और बिना रुके, बोधि वृक्ष को देखते रहे। यह स्थान महाबोधि मंदिर परिसर के उत्तर-पूर्व में अनिमेषलोचा स्तूप, यानी बिना पलक झपकाए स्तूप या मंदिर द्वारा चिह्नित है। वहां बुद्ध की एक मूर्ति खड़ी है, जिनकी आंखें बोधि वृक्ष की ओर हैं। ऐसा कहा जाता है कि बुद्ध अनिमेश्लोचा स्तूप और बोधि वृक्ष के बीच आगे-पीछे चलते थे। किंवदंती के अनुसार, इस मार्ग पर कमल के फूल उगते थे; इसे अब रत्नचक्र या गहनों की सैर कहा जाता है। उन्होंने चौथा सप्ताह रत्नागर चैत्य के पास, उत्तर-पूर्व की ओर बिताया। उन्होंने छठा सप्ताह कमल तालाब के बगल में बिताया। उन्होंने सातवां सप्ताह राज्यत्न वृक्ष के नीचे बिताया। यह सभी स्थान आसपास ही हैं।
दार्शनिक और सांस्कृतिक इतिहास के संदर्भ में, महाबोधि मंदिर परिसर बहुत प्रासंगिक है क्योंकि यह भगवान बुद्ध के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना को चिह्नित करता है, वह क्षण जब राजकुमार सिद्धार्थ ने ज्ञान प्राप्त किया और बुद्ध बन गए, एक ऐसी घटना जिसने मानव विचार और विश्वास को आकार दिया। यह संपत्ति अब दुनिया में बौद्ध तीर्थयात्रा के सबसे पवित्र स्थान के रूप में प्रतिष्ठित है और मानव इतिहास में बौद्ध धर्म का उद्गम स्थल माना जाता है।(1)
महाबोधि मंदिर परिसर का माहौल बहुत शांत है। यह परिसर कई तलों में बंटा हुआ है। जिसके लिए सीढ़ियों रैम्प की अच्छी व्यवस्था है।
इस मंदिर की वर्तमान स्थिति देख कर कोई नहीं कह सकता है कि इसने कितने हमले सहे हैं। मुस्लिम आक्रांताओं ने इसे तोड़ा, अतीत में यह मंदिर कहीं खो सा गया था जिसे भारतीय पुरातत्व विभाग के संस्थापक सर अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा 19वीं सदी में फिर से खोजा गया, जिन्होंने वर्ष 1861 में एएसआई की स्थापना की थी। वर्ष 2013 में यहाँ बम के तीन धमाके हुए लेकिन आज भी यह परिसर अपने पूरे वैभव के साथ खड़ा है। उसी वर्ष नवम्बर माह में थाईलैंड के बौद्ध श्रद्धालुओं द्वारा दान किए गए 289 किलोग्राम सोने से इस मंदिर के गुम्बदों को सजाया गया।
इस मंदिर में मोबाइल या अन्य कोई भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण लेकर जाना मना है। मंदिर के बाहर मंदिर प्रबंधन की ओर से निःशुल्क लॉकर की व्यवस्था है। अगर आपके साथ कोई वयोवृद्ध व्यक्ति है तो आप वीलचेयर भी ले सकते हैं। जिसके लिए आपको अपना आधारकार्ड जमा करवाना होगा। मंदिर मार्ग पर स्थानीय लोग महात्मा बुद्ध के प्रिय पुष्प कमल लिए मिल जाते हैं। आप भगवान को अर्पित करने के लिए ले सकते हैं। यहाँ एक पूरा बाज़ार सजा हुआ है। ध्यान बौद्ध धर्म का आधार है। यहाँ लोग बौधि वृक्ष के पास ध्यान करते हैं। यहाँ ध्यान के लिए चटाई,आसान और गद्दियाँ आसानी से मिल जातीं हैं।
यहाँ का दूसरा सबसे बड़ा आकर्षण है यहाँ स्थित 82 फीट के ध्यान रत महात्मा बुद्ध की विशाल मूर्ति। कमल पर विराजमान भगवान बुद्ध की ध्यान मग्न यह मूर्ति लगभग 12000 राजमिस्त्रियों के 7 साल के अथक परिश्रम के बाद आकार में आई है। उसे बलुआ पत्थर ब्लॉक और लाल ग्रेनाइट के मिश्रण से बनाया गया है। इसकी प्राण प्रतिष्ठा 14वें दलाई लामा के पवित्र करकमलों द्वारा 18 नवंबर 1989 में की गई थी। इसी स्मारक से लगी हुई दो मोनेस्ट्रियाँ हैं। कर्मा मंदिर और मंगोलिया मंदिर।
यहीं आसपास ही चीन और थाईलैंड की मोनेस्ट्री भी देखने लायक हैं। सड़क के उस पार जापान की खूबसूरत मोनेस्ट्री बड़ी अनोखी है। इस मोनास्ट्री को विंड चेम से सजाया गया है। यहाँ प्रवेश करते ही सैंकड़ों घंटियों की मधुर ध्वनि आपका स्वागत करती है।
दिल्ली से बोधगया जाने के लिए आपको बहुत सारी ट्रेन मिलेंगी। तीन राजधानी है बाकी बहुत सारी सुपरफास्ट गाड़ियां मौजूद हैं। एयर कनेक्टिविटी भी है। बोधगया का एयरपोर्ट नजदीक है। महाबोधि मंदिर के से बहुत दूर नहीं है लेकिन बहुत फ्रिक्वेंट फ्लाइट्स अभी नहीं है। बौद्ध गया में ठहरने के लिए हर बजट के होटल मौजूद हैं। यहाँ खाने पीने के लिए भी अच्छे रेस्टोरेंट मौजूद हैं।