भारत का स्कॉटलैंड– बांसवाड़ा
गुजरात की सीमा से लगा बांसवाड़ा यहां पर पैदा होने वाले बांस के कारण प्रसिद्द हुआ. पहली बार जब ये नाम सुना तो एक जगह अटक सी गई. बांस और राजस्थान में? बांस के लिए तो बहुत पानी चाहिए होता है? किसी ने बताया कि बांस यहां बहुतायत में होता था इसलिए इस स्थान का नाम पड़ा बांसवाड़ा. मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई. उदयपुर की हरयाली से तो पहले से शनासाई रही है मेरी लेकिन ऐसा जंगल जहां बांस के घने पेड़ हों वो भी देश के इस हिस्से में, सोचा ना था. ये तो मुझे सतपुड़ा में देखने को मिलते हैं या उत्तर पूर्व में. इस मरुस्थल में बांस का जंगल रेगिस्तान में मिराज जैसा होगा.
यह सोचते सोचते मैं उदयपुर की सीमा लांघती हुई घने जंगल और अरावली की घाटियों में प्रवेश करती हूं. सड़क किसी नागिन सी लहराती हुई हरयाली से भरे वन में घुसती चली जाती है. हम केवड़ा की नाल नमक स्थान से होकर गुज़र रहे हैं. इस स्थान का नाम केवड़ा की नाल कैसे पड़ा?
मेरे इस सवाल का जवाब दिया इन जंगलों के जानकर और सहायक वन संरक्षक डा. सतीश कुमार शर्मा जी ने. सतीश जी अब वन विभाग से रिटायर्ड हैं. उन्होंने अपना पूरा जीवन इन्हीं जंगलों के संरक्षण में लगाया है. डा. शर्मा बताते हैं- जहां दो पहाड़ समनातंर होते हैं उनके बीच एक जल धारा होना आवश्यक है. यहां कभी एक ऐसी ही जलधारा होती थी जिसके किनारे किनारे केवड़े के पेड़ होते थे.उसे नाल कहा जाता था. कालांतर में यहां की जलधारा सूख गई लेकिन नाल नाम बाकी रह गया.
केवड़ा और यहां ?
मैं एक बार फिर ठिठक जाती हूँ. इस सुगन्धित पौधे को भी खूब नमी चाहिए. ये मुझे बंगाल से होता हुआ असाम तक देखने को मिलता है. क्या मैं किसी ट्रॉपिकल फारेस्ट में हूँ ? शायद हाँ. ये अहसास मुझे रोमांच से भर रहा है. जंगल से आती मदमाती सुगंध मुझे मदहोश कर रही है.
इन जंगलों के बारे में डा. शर्मा आगे बताते हैं. ये ट्रॉपिकल फारेस्ट एरिया है यहां लगभग 100 दुर्लभ औषधीय वनस्पतियों का पता लग चुका है. हम एक लम्बे समय से इन दुर्लभ वनस्पतियों के संरक्षण और रिवाइवल के लिए कार्य कर रहे हैं. इसी लिए ये जंगल खास है और संरक्षित भी. ये जंगल देश के 16 ट्रोपिकल फारेस्ट में से एक बेहद खास फारेस्ट माना जाता है.
इसी संरक्षण कार्य के चलते आपको यहां लेमन ग्रास और केवड़े की खेती देखने को मिलेगी. जो औषधीय पौधे यहां से विलुप्त हो गए थे अन विभाग के प्रयासों से उन्हें यहां पुनः प्रतिष्ठित किया गया है.
जिन्हें जंगलों से प्रेम हो चुका है वही मेरी इस भावना को समझ सकते हैं. ठंडी हवाओं के झोंके, नयन नक्श और रूप बदलते पहाड़ कुछ कह रहे हैं.
जिस अरावली को मैं जानती हूं वो दिल्ली के पहाड़गंज से शुरू होकर गुजरात के पालमपुर तक जाती है. जिस स्थान पर अभी मैं हूं यह अरावली का दक्षिणी छोर है. यहाँ से आगे बांसवाड़ा में ये मालवा के साथ मिलता है. इसलिए ये पहाड़ियां मालवा की खूबसूरती को समेटे हुए हैं. ऐसा लगता है जैसे इन पहाड़ों को बड़ी नफ़ासत से फिनिशिंग टच दिया गया है. इनके नुकीले कोने और खुरदुरापन काली और लाल मिटटी के लेप से ढंका हो. ये जो पहाड़ की खूबसूरती हैं ये मालवा की विशेषता है.
कुछ ही देर में मोबाइल का नेटवर्क भी साथ छोड़ जाता है. मेरे लिए ये संकेत शुभ हैं. इतनी यात्राओं को करने के बाद मैं ये जान चुकी हूं कि प्रकृति को अपने मौलिक अवस्था में देखने के लिए कुछ आडम्बर पीछे छोड़ने ही पड़ते हैं. इसलिए नेटवर्क नहीं है तो भी कोई ग़म नहीं है. जो है वो बेहद खास है. रास्ते में एक जगह पर रुक कर हमने एक खास चाय पी. ड्राइवर बोला- मैडम आपको जड़ी बूटी वाली स्पेशल चाय पिलवाते हैं. हम भी जिज्ञासु. तुरंत राज़ी हो गए. जब चाय की टपरी पर रुके तो पता चला उस स्पेशल चाय में लेमन ग्रास डाली जा रही है. मैं मंद मंद मुस्कुराई. एक और संकेत. लेमन ग्रास ट्रॉपिकल क्लाइमेट का पौधा है. उसकी उपस्थिति यहां. सुखद संकेत है. आगे जाने क्या दिखने वाला है. मैं उत्साह से भर गई हूँ.
ये जंगल इतने हरे इसलिए हैं कि इनके पास पानी की प्रचुर मात्र उपलब्ध है. यहाँ 850 मिलीमीटर वर्षा दर्ज की जाती है और इस ज़मीन को सींचती है मध्य प्रदेश से आने वाली सदानीरी नदी माहीं. इन पहाड़ों की ऊपरी पर्त काली और लाल मिटटी की है इसलिए हरी हरी मखमली घांस इन पहाड़ों को मखमली दुशाले से ढंक लेती है. मैं अपने इन ख्यालों के साथ एक ऐसे स्थान में प्रवेश करती हूँ जोकि अद्भुत है. अगर कहूँ कि मैंने ऐसा पहले कहीं नहीं देखा तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी. कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों की घाटियां.यहां अरावली और मालवा जैसे आलिंगन करते हों. पहाड़ों की ऐसी संरचनाएं ना पहले कहीं देखीं ना सुनी. ये गोल गुम्बदों से जगह-जगह उग आए पहाड़ टीले किसी जादुई लोक से प्रतीत होते हैं.
अच्छा तो इसी लिए इस स्थान को 100 टापुओं का नगर कहा जाता है.
इन टीलों पर मिटटी की परतें किसी लहरों सी नज़र आती हैं. मेरे सामने किसी डिजिटल वॉलपेपर जैसा अद्भुत नज़ारा फैला हुआ है. माही डेम का बेक वाटर को छुकर आती हवाएं इन टीलों को जैसे दुलारती हैं. जहां तक नज़र जाती है वहां तक पानी और मखमली हरयाली नज़र आती है. ये क्या जगह है ? मैं बरबस यहीं ठहर जाना चाहती हूं.
ये बांसवाड़ा जिले में पड़ने वाला एक अनछुआ गांव है. जिसका नाम है चाचाकोटा. यह शहर से 26 किलोमीटर की दूरी पर अरावली की चोटियों और टीलों के बीच बसा है. यह आदिवासी गांव घर है भील जनजाति का जिसकी जनसँख्या मात्र 416 आंकी गई थी पिछली जन गणना में. 845 हेक्टेयर में फैला यह गांव किसी पारी लोक जैसा है. ये क्षेत्र चाचा कोटा के आस पास के कई गांवों जैसे छपरिया, कटियोर, बारी, करेलिया और बड़वी में फैला हुआ हैं। चाचा कोटा दक्षिण की ओर बांसवाड़ा तहसील, उत्तर की ओर घाटोल तहसील, उत्तर की ओर पीपल खुंट तहसील, पूर्व की ओर अर्नोद तहसील से घिरा हुआ है।
यहाँ के स्थानीय आदिवासी भील और मीणा अभी भी अपने मौलिक रूप में जीवन यापन कर रहे हैं. यहां भले ही आपको पीने के लिए चाय की एक दुकान ना मिले लेकिन देखने के लिए इतना कुछ मिलेगा कि चाय की तलब भी मामूली जान पड़ेगी. इन नज़ारों की खातिर उस तलब को कुछ वक़्त के लिए मुल्तवी किया जा सकता है. यहाँ की खूबसूरती को आँखों से पीजिए साहेब.
मैं एक टीले पर बैठ कर सिर्फ इस ठंडी हवा और धुले निथरे आकाश को निहारना चाहती हूं तब तक जब तक कि सूरज ढल नहीं जाता और ये अद्भुत नज़ारा मेरी नज़रों के सामने किसी चलचित्र की भांति अंधकार में लोप नहीं हो जाता.
इन पहाड़ों पर उगने वाली हरी घांस किसी कारपेट सी नर्म है. ताज़ा ताज़ा बारिश ने इसे धो पौंछ दिया है और तेज़ हवाओं के झोंकों और बादलों से अठखेली करते सूरज ने बुहार कर जैसे मेरे यहाँ बैठने का पूरा प्रबंध कर दिया हो. ये जगह तो भारत का स्कॉटलैंड है. मेरे मुंह से अनायास ही निकल पड़ा.
मुझे नहीं याद पड़ता कि अपने यायावरी के पूरे कैरियर में मैंने आज से पहले इतनी अद्भुत जगह पहले देखी हो कभी…. मैंने बहुत सारे बैक वाटर्स, डैम और फारेस्ट देखे हैं लेकिन ये स्थान अद्भुत, अकल्पनीय और अद्वतीय है…..मुझे आज बरसों में कुछ ऐसा दिखा है जो जीवन भर मेरी स्मृति में ज़िन्दा रहेगा!!!
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