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पारिजात के पेड़ों पर सफ़ेद फूलों का आना, हवा में सुगंध का घुलना इशारा करता है कि भारत में त्योहारों का मौसम आने वाला है। शरद ऋतु के आगमन का स्वागत करते त्यौहार सब के जीवन में उमंग भर देते हैं। इसी कड़ी में हम चले चलते हैं दिल्ली के दिल में बसे छोटे से बंगाल- चितरंजन पार्क में जहाँ दुर्गा पूजा की तैयारी ज़ोरों से चल रही हैं। और जानने की कोशिश करते हैं कि दुर्गा पूजा क्यों मनाई जाती है ?और क्या है इसके पीछे की कहानी ?

यह पूजा नौ दिनों तक चलने वाली पूजा है। मैंने अपने बंगाली मित्रों से इस पर्व की जानकारी जुटाई जिसे मैं आपके साथ भी साझा करुँगी। महालया के दिन से पूजा शुरू होती है। इस दिन बंगाली परिवारों में चंडी पाठ किया जाता है। चंडी पाठ में महिषासुरमर्दिनी की कथा एक मधुर और लयबद्ध सुर में संस्कृत और बांग्ला में मंत्रोच्चारण के साथ सुनाते हैं।


इस कथा के मुख्य अंश आपके लिए-

असुर महिष ने घोर तपस्या की और ब्रह्म देव प्रसन्न हो गए। महिष ने अमरता का वरदान माँग लिया मगर ब्रह्म देव के लिए ऐसा वरदान देना संभव नहीं था तब महिषासुर ने एक चाल चली और  वरदान माँगा कि अगर उसकी मृत्यु हो तो किसी औरत के हाथों। उसे विश्वास था कि निर्बल महिला उस शक्तिशाली का कुछ नहीं बिगाड़ सकती। ब्रह्म देव ने वरदान दे दिया और शुरू हो गया महिषासुर का उत्पात। सभी देवता उससे हार गए और इंद्र देव को भी अपना राजसिंहासन छोड़ना पड़ा। महिषासुर ने ब्राह्मणों और निरीह जनों पर अपना अत्याचार बढ़ा दिया। सारा जग त्राहि-त्राहि कर उठा और तब सभी देवों ने मिलकर अपनी-अपनी शक्ति का अंश दे कर देवी के रूप में एक महाशक्ति का निर्माण किया। 


नौ दिन और नौ रात के घमासान युद्ध के बाद देवी दुर्गा ने महिषासुर का वध किया और वो महिषासुरमर्दिनी कहलाईं। महालया के दिन ही माँ दुर्गा की अधूरी गढ़ी प्रतिमा पर आँखें बनाईं जाती हैं जिसे चक्षु-दान कहते हैं। इस दिन लोग अपने मृत संबंधियों को भी याद करते हैं और उन्हें तर्पणअर्पित करते हैं। महालया के बाद ही शुरू हो जाता है देवीपक्ष और जुट जाते हैं सब लोग त्यौहार की तैयारी में, ज़ोर-शोर से।

 

 

पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि हर साल दुर्गा अपने पति शिव को कैलाश में ही छोड़ अपने बच्चों गणेश, कार्तिकेय, लक्ष्मी और सरस्वती के साथ सिर्फ़ दस दिनों के लिए मायके आती हैं। उनकी प्रतिमा की पूजा होती है सातवें, आठवें और नौवें दिन। छठें दिन या षष्ठी के दिन दुर्गा की प्रतिमा को पंडाल तक लाया जाता है। दुर्गा की प्रतिमाएँ एक महीने पहले से गढ़नी शुरू हो जाती हैं और उससे भी पहले से तैयार होने लगते हैं पंडाल। दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में कई जगह बंगाल से आए कारीगर प्रतिमाएं बनाने का काम करते हैं। 

 

दुर्गा की सुंदर प्रतिमाएँ गढ़ने के लिए जहाँ मिट्टी से ये मूर्तियाँ बनाईं जाती हैं, लकड़ी के ढांचे पर जूट और भूसा बाँध कर तैयार होता है प्रतिमा बनाने का आधार और बाद में मिट्टी के साथ धान के छिलके को मिला कर मूर्ति तैयार की जाती है। प्रतिमा की साज-सज्जा बड़ी मेहनत के साथ की जाती है जिसमें नाना प्रकार के वस्त्राभूषण उपयोग में लाए जाते हैं।

 

बंगाल के अलग अलग क्षेत्रों से आने वाले कलाकार साल भर पहले से माँ के आभूषण और वस्त्र तैयार करते हैं.कारीगरों का एक जत्था जहाँ दुर्गा माँ की मूर्तियां तैयार करने में लगा होता है वहीँ दूसरा पंडाल सजाने के काम में जुटा होता है। आजकल थीम पंडालों की धूम है। हर बार पंडालों में कुछ नया और कलात्मक करने की होड़ लगी रहती है.

 

 

षष्ठी के दिन प्रतिमा को पंडाल में लाकर रखा जाता है और शाम को बोधनके साथ दुर्गा माँ के मुख से आवरण हटाया जाता है। महाषष्ठी के दिन घर की औरतें व्रत रखती हैं और शाम को मैदे से बनी पूरियाँ खाती हैं। मैदे से बनी इन पूरियों को “लूचि” कहते हैं। इस दिन नए कपड़े पहनने का रिवाज़ है और छोटे बच्चे नए कपड़े पहने हर जगह चहकते दिखाई देते हैं।

दुर्गा पूजा के ये चार दिन। हर जगह खुशी और उल्लास। लोग हर रोज़ सुबह उपवास रख माँ दुर्गा के चरणों में पुष्पांजलि अर्पित करने दुर्गा पंडाल जाते हैं और अपनी मनोकामना पूरी होने की प्रार्थना करते हैं।

 

 

 सुबह-सुबह ही दुर्गा पंडाल में महिलाओं को लाल पाड़ की साड़ी पहने पूजा के काम में व्यस्त देखा जा सकता है। कोई महाभोग की तैयारी करती दिखाई देती हैं तो कोई फूल की माला गूँथती। लोगों की भीड़ और धूप बाती की आध्यात्मिक गंध के साथ ढाक (ढोल) की आवाज़ पूरे वातावरण को पवित्र कर देती हैं। यहाँ ढाक बजाने के लिए भी कलाकार बंगाल से ही आते हैं। माँ दुर्गा की आरती होती है और उसके बाद उन्हें भोग लगाया जाता है। दोपहर को सभी उपस्थित जनों को खिचड़ी और तरकारी का प्रसाद खिलाया जाता है। दुर्गा पूजा के इन दिनों में स्थानीय कलाकारों को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का पूरा अवसर मिलता है और हर शाम सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि मशहूर सिंगर पलाश सेन भी अपने नए दिनों में पंडाल के सांस्कृतिक कार्यक्रम में गाते थे।

 

 

महाअष्टमी या नवरात्रि के आठवें दिन का अपना महत्व है। संधिपूजा अष्टमी के दिन होती है। संधिपूजा का एक निश्चित मुहूर्त होता है और उस मुहूर्त में बलि चढ़ाई जाती है। पुराने ज़माने में लोग बकरे की बलि चढ़ाते थे मगर ये प्रथा अब ना के बराबर रह गई है। ज़्यादातर जगहों पर किसी फल जैसे कुम्हड़े आदि की बलि चढ़ाई जाती है। मंत्रोच्चारण के साथ 108 जलते दीयों के बीच उस संधिक्षण की बलि के लिए लोग निर्जल उपवास रखते हैं और उन कुछ क्षणों के लिए सारा जग जैसे शांत हो जाता है। कहते हैं उस संधिक्षण में माँ के प्राण आते हैं। पूजा के नवें दिन या महानवमी को आरती भोग आदि के साथ-साथ शाम को पंडाल में तरह-तरह के कार्यक्रमों और प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। नवमी के दिन सुबह एक छोटी लड़की को साड़ी पहना कर सजाकर उसकी पूजा की जाती है जिसे कुमारी पूजाकहते हैं। 

 

 

शाम को होने वाली आरती से पहले महिलाऐं शंख बजती हैं। आरती के बाद धूनुचि नाचप्रतियोगिता में लड़के हिस्सा लेते हैं। धूनुचिमिट्टी के बड़े सुराहीनुमा प्रदीप होते हैं जिनमें नारियल के छिलकों को जलाया जाता है और धूनोनामक सुगंधित पदार्थ डाल कर उन प्रदीपों को हाथ में ले कर लड़के अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं। 

 

एक साथ 2-2 धूनुचि ले कर और उसमें से गिरती आग के बीच नाचते ये जोशीले लड़के जैसे माँ दुर्गा को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। बीच-बीच में उस गिरती आग को आसपास खड़े लोग ज़मीन पर से हटा देते हैं ताकि नाचने वाले का पाँव न पड़ जाए उन चिंगारियों पर।

 

 

अगले दिन दशमी को सुबह माँ दुर्गा की पूजा के साथ ही उन्हें मंत्रोच्चारण के साथ विसर्जित कर दिया जाता है मगर प्रतिमाओं का विसर्जन होता है शाम को जब हर प्रतिमा के साथ एक बड़ी भीड़ होती है। प्रतिमा के विसर्जन से पहले, विवाहित महिलाएँ माँ दुर्गा की प्रतिमा को सिंदूर लगाने पंडाल आती हैं और वहाँ होली की ही तरह सुहागिनें सिंदूर से खेलती हैं।इसे सिंदूर खेला कहा जाता है। लाल बॉर्डर वाली सफ़ेद साडी में सजी विवाहित महिलाऐं एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं। 

माहौल कुछ ऐसा बन जाता है जैसे लाड़ली बेटी दुर्गा मायके से ससुराल जा रही हो और सभी उसे विदा करने आए हों।

 

 

यह पर्व प्रतीक है बुराई पर अच्छाई की विजय का, सत्य की जीत का, पंडाल में लगने वाली हर मूर्ति किसी विशेष सन्देश की वाहक होती है।

महिषासुर यदि अन्याय, अत्याचार औऱ पापाचार का प्रतीक है तो दुर्गा शक्ति, न्याय और हर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की प्रतीक है। उसकी आँखों में सिर्फ़ करुणा और दया के आँसू ही नहीं बहते, बल्कि क्रोध के स्फुलिंग भी छिटकते हैं। सब हमारे जीवन में सामाजिक न्याय की प्रतीक हैं।

विजयादशमी के दिन छोटे पैर छू कर अपने बड़ों से आशीर्वाद लेते हैं और मुँह मीठा करते हैं। लोग एक दूसरे से मिलने सबके घर जाते हैं और मिठाई व उपहार देते हैं और ये प्रक्रिया कई दिनों तक चलती रहती हैं। इस तरह संपूर्ण होती है दुर्गा पूजा।

इन्तिज़ार कीजिये मेरी अगली पोस्ट का 

तबतक खुश रहिये ,घूमते  रहिये 

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त 

डा० कायनात क़ाज़ी

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