खूबसूरत सोच के मालिक और उर्दूहिन्दी के मशहूर शायर मुनव्वर राणा किसी परिचय के मोहताज नहीं है। उन्होंने अपनी शायरी को हिन्दी में लिखकर अनगिनत हिन्दी भाषी लोगों तक उर्दू अदब को पहुँचाया है। डा० कायनात क़ाज़ी से हुई ख़ास बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत हैं

 

लखनऊ एयरपोर्ट का लाउन्ज, मैं बेमन से अख़बार के पन्ने पलट रही थी और अपनी फ्लाइट का इन्तिज़ार कर रही थी। मौसम बोरियत से भरा हुआ था और लाउन्ज भी। इतने में ही फ़िज़ा में जन्नतुल फ़िरदौस (एक क़िस्म का बेहतरीन इत्र) की महक घुल गई। मैंने चौंक कर इधर-उधर नज़र घुमाई। एलिवेटर के पास एक क़द्दावर, शहाना शख़्सियत अपने मख़्सूस काले लिबास में चले आ रहे थे। यह शख्स और कोई नहीं बल्कि मशहूर शायर मुनव्वर राणा थे।

मुनव्वर राणा किसी परिचय के मोहताज नहीं। उनकी शायरी के क़दरदान देश में ही नहीं विदेशों तक में फैले हुए हैं। उनकी क़लम से निकला एक एक लफ़्ज़ दिलों को गहराई से छूता है और यादों में हमेशा ताज़ा बना रहता है। वो जितने बड़े शायर हैं उतने ही उम्दा शख़्सियत के मालिक भी हैं। वह मुशायरों के बेताज बादशाह हैं। पूरी दुनियाँ  में लोग उनके मुशायरों को सुनने आते हैं। यह एक ऐसे शायर हैं जिन्होंने उर्दू शायरी को हिन्दी के साथ जोड़ कर नौजवानों में शायरी के लिए दिलचस्पी पैदा की है। उनका एक शेर यही बयान करता है।

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है,

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ, हिन्दी मुस्कुराती है।

उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश:

आपकी ग़ज़लों में माँ की ख़ास जगह है. आप बेटी और बहन को भी अपने कलाम में अमियत देते हैं। इसपर क्या कहना है?

मामूली एक क़लम से कहाँ तक घसीट लाए

हम इस ग़ज़ल को कोठे से माँ तक घसीट लाए 

मुझे तकलीफ होती है बुरा भी लगता है जब हम मदर्स डे मानते हैं। माँ का मुक़ाम बहुत ऊपर है उसके लिए सिर्फ एक दिन नहीं सदियाँ मनानी चाहिए।

मैं एक जज़्बाती इन्सान हूँ. रिश्तों की बड़ी अहमियत है मेरी नज़र में शायद इसी लिए बहन और बेटी का ज़िक्र मेरे कलाम में आता है।

मुशायरों की अब पहले जैसी बात नहीं रही, उनका स्तर गिरता जा रहा है। आपका क्या कहना है?

एक दौर ऐसा था जब लोग खुले दिल से मुशायरों में जाते थे। माँ -बाप भी यह सोच अपने बच्चों  को मुशायरे जैसे जलसों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने देते थे वो सोचते थे कि इसी तरह से बच्चा बहुत कुछ सीखेगा पर अब ऐसा नहीं है। आजकल मुशायरों में पैसा बहुत आ गया है और साथ लाया है पैसे से जुडी बुराइयाँ और तंग नज़र।1992 के बाद से इसे धर्म के साथ जोड़ा जाने लगा है। जो चीज़ कारोबार बन जाती है तो स्तर गिर ही जाता  है। जिस तरह राजनीति और नेतागीरी का स्तर बेहद घटिया हो गया है, अफ़सोस  वही  हाल मुशायरों का भी है। मुशायरे हमारे मुल्क की गंगा जमुनी तहज़ीब की ज़िन्दा  मिसाल होते थे। यह किसी फ़क़ीर, संत की कुटिया जैसे होते थे जहाँ लोग चंद लम्हों के लिए सुकून पाते थे। शायरी अब बाज़ारी हो गई है। हमने जब लिखना शुरू किया था तो सोचा भी न था कि एक दिन  इसके पैसे भी मिलेंगे। जवानी का जोश था। दिमाग में इन्क़िलाबी बातें भरी थीं। अब पहले जैसी बात नहीं रही।

देश में साम्प्रदायिक दंगे एक बार फिर सर उठा रहे हैं, उत्तर प्रदेश में मुज़फ़्फ़रनगर हो या फिर दिल्ली में त्रिलोकपुरी। एक शायर होने के नाते आप क्या कहना चाहेंगे?

लोगों में गुंजाइशें ख़त्म हो गई हैं। पहले लोग दरगुज़र से काम लिया करते थे। आज एक छोटी सी चिंगारी बड़े शोले में बदल जाती है और गाँव का गाँव ख़ाक हो जाता है। दंगे होने वाली जगह पर किसी शायर को भेजना चाहिए जो मुहब्बतें फैला सके ना कि नफ़रतों को हवा दे। पर हमारे देश में ऐसे लोगों को भेजा जाता है जिन्हें आगे एम पी और एम एल ए बनकर राजनीति करनी है। नफरतों को नफरत से ख़त्म नहीं किया जा सकता है। मुहब्बत ज़रूरी है। अब इससे ज़्यादा और क्या कहें-

अगर दंगाइयों पर तेरा कुछ बस नहीं चलता तो फिर सुन ले हुकूमत हम तुझे नामर्द कहते हैं” 

आप जब उर्दू अकादमी के सदर बने तो एक उम्मीद जागी थी कि अब शायद उर्दू के अच्छे दिन आएंगे पर आपने अचानक इस्तीफ़ा ने सबको मायूस कर दिया। आपका क्या कहना है

अगर हम डायलसिस पर लेते हुए शायर व अदीब की मदद नहीं कर सकते तो ऐसा ओहदा (पद) किस काम का। अब इस उम्र में आकर हमसे समझोते नहीं होते। मैं उर्दू अकादमी से उर्दू ज़बान की खिदमत करने के लिए जुड़ा था। अगर वहाँ रह कर कुछ कर ही न सकूँ तो ऐसी सदारत किस काम की।

मेरी ख़ुद्दारी ने एहसान किया है मुझ पर,

वरना जो जाते हैं दरबार में खो जाते हैं !

कौन फिर ऐसे में तनक़ीद करेगा तुझ पर,

सब तेरे जुब्बा दस्तार में खो जाते हैं !

जब मुझे उर्दू अकादमी का सदर बनाया गया था तब लोग मुझे बधाई देने आते थे उस वक़्त मेरा कहना था की बधाई नहीं दुआ दीजिये कि मैं साबुत क़दाम (ईमानदार, अड़िग) रहूँ और उर्दू ज़बान की खिदमत कर सकूँ।

हम इक्कीसवीं सदी में पहुँच गए है और काफी तरक़्क़ी भी की है क्या आपको ऐसा नहीं लगता की उर्दू विकास की दौड़ में कहीं पिछड़सी गई है?

नहीं ऐसा नहीं है. उर्दू के क़द्रदान आज भी बहुत हैं। और भला हो नए ज़माने की टेक्नोलॉजी का जिसने उर्दू के कद्रदानों को दुनिया भर से लाकर एक जगह इकहट्टा कर दिया है। उर्दू कभी भी विदेशी भाषा नहीं थी यह तो ख़ालिस हिंदुस्तानी है। इसका जन्म हिंदुस्तान में हुआ और लोगों ने इसे खुले दिल से अपनाया। हम और आप जिस ज़बान में बात करते हैं वो उर्दू ही तो है. 

आपको मोदी सरकार से क्या उम्मीदें है ?

मैं एक आशावादी इंसान हूँ। मैं उम्मीद करता हूँ।  जितने वायदे किये गए है उनमे से आधे भी पूरे  कर पाए  तो मुल्क ज़रूर तरक्की करेगा।

बस इतनी इल्तिजा है तुम इसे बर्बाद मत करना,

तुम्हें इस मुल्क का मालिक मैं जीते जी बनाता हूँ !

देश के युवाओं को आप क्या सन्देश देना चाहेंगे ?

मैं बस यही गुज़ारिश करूँगा कि

दवा की तरह खाते जाइये गाली बुजुर्गों की,
जो अच्छे फल हैं उनका ज़ायक़ा अच्छा नहीं होता !

रवानगी से पहले राना साहब ने अंतरराष्ट्रीय इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे से ही कुछ शेर कहे

मुख़ालिफ़ सफ़ भी ख़ुश होती है, लोहा मान लेती है,

  ग़ज़ल का शेर अच्छा हो, तो दुनिया मान लेती है।

वतन से दूर भी यारब वहाँ पे दम निकले,

  जहाँ से मुल्क की सरहद दिखाई देने लगे।

ज़रूरत रोज़ हिज्रत के लिए आवाज़ देती है,

  मुहब्बत छोड़ कर हिंदुस्तान जाने नहीं देती।

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