Shah-e-Hamdan-1-of-3
शाह-ए-हमदान और दस्तगीर साहेब 
Kashmir Day-3
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कश्मीर तीसरा दिन 

Shah-e-Hamdan

दूसरा दिन डल लेक के आसपास बने मुग़ल गार्डन्स देखने में निकल गया। श्रीनगर इतना बड़ा है कि आप इसे एक दिन में नहीं देख सकते है। इसलिए मैंने पहले दिन सिर्फ गार्डन्स ही देखे। आज में आपको ले चलती हूं पुराने श्रीनगर में। जहां हम ढूंढेंगे मध्य एशिया से भारत में आए सूफ़ीज़्म की जड़ों को। 

A lady praying @Shah-e-Hamdan


कहते हैं भारत में सूफ़ीज़्म पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास आया। जब मध्य एशिया से इस्लाम का विस्तार हुआ और वहां के योद्धाओं ने पूरे विश्व में इस्लाम के प्रचार के लिए अपने पांव फैलाए तो चारों तरफ एक अजीब मंज़र था। धार्मिक कट्टरता ने शांत देश में उथल पुथल मचा दी। धर्म के इन प्रचारकों के बीच ऐसे भी कुछ लोग थे जो धार्मिक कट्टरता के ख़िलाफ़ थे और विस्तारवाद की राजनीति को छोड़ना चाहते थे। ऐसे ही लोगों ने सक्रिय राजनीति को छोड़ गांव देहात का रास्ता अपनाया और मानवता को अपना मूल मन्त्र माना। यह लोग सत्ताधारियों से अलग थे। यह विलासिता से दूर आम आदमी के सुख दुःख के साथी बने। इन्होने इस्लाम का सही मायनों में प्रचार और प्रसार किया। यह फूट डालो नीति के बजाए सब को साथ लेकर चलने में विश्वास रखते थे। यह रेशम के वस्त्र न पहन कर मामूली ऊनी लबादे पहनते थे यह लोग हर वक़्त इबादत में लगे रहते।  अल्लाह और अल्लाह के रसूल की अच्छी बातों का ज़िक्र किया करते थे। घाटी में इस्लामिक कट्टर पंत के प्रभाव को कम करने में इन सूफ़ियों ने ज़हर मोहरा (Antidote) का काम किया। इन के दरवाज़े हर इंसान के लिए खुले थे। यह जाति बिरादरी, ऊंच नीच, काला गोरा, हिन्दू मुस्लिम से परे इंसानियत को तरजीह देते थे। कश्मीर में उन दिनों जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु भी हुआ करते थे। भारतीय साधू और पर्शियन सूफियों में बहुत समानता थी इसलिए यह यहीं के हो कर रह गए। इनकी सोच कश्मीरियत से बहुत मेल खाती थी। इसीलिए कश्मीर की घाटी में लोगों के बीच यह ऐसे मिल गए जैसे दूध में शकर। पर्शिया से आने वाले प्रमुख सूफ़ी थे सय्यद जलाल उद्दीन बुखारी, बुलबुल शाह, सैयद ताजुद्दीन, सैयद हुसैन सामनानी, शाह-ए-हमदान आदि। ऐसा कहा जाता है कि शाह-ए-हमदान इन सूफ़ी विद्वानो में सबसे प्रमुख थे और उनके द्वारा कश्मीर घाटी में इस्लाम का खूब प्रचार हुआ जिससे घाटी में पैंतीस हज़ार जैन और बौद्ध लोगों ने स्वेच्छा से इस्लाम धर्म अपनाया। ऐसा माना जाता है कि  शाह-ए-हमदान का मज़ार घाटी में बने अन्य सूफ़ी मज़ारों में सबसे प्राचीन है। 

wooden carving work@ Shah-e-Hamdan


 आज भी कश्मीर घाटी में कई सूफी संतों की मज़ारें हैं जहां सभी धर्मों के लोग जाते हैं। पुराने श्रीनगर में जाए के लिए सबसे अच्छा साधन है ऑटो रिक्शा, मैंने एक ऑटो वाले से बात की और वह मुझे पुराने श्रीनगर लेकर गया। मैं जानना चाहती थी कि इतने सैकड़ों सालों पुराना सूफिज़्म अब भी उसी स्वरुप में है या कि कुछ बदला है।  मेरी यह जुस्तुजू मुझे शाह-ए-हमदान का मज़ार ले पहुंची। इसे ख़ानका-ए-मौला भी कहते हैं। यह झेलम नदी के तट पर बसा है। मुझे ऑटो वाले ने बताया कि अभी पिछली साल जब श्रीनगर में बाढ़ आई तो जहां लोगों के घर एक एक मंज़िल तक डूब चुके थे वहीं शाह-ए-हमदान जो कि झेलम के तट पर ही बसा है उसे कुछ नहीं हुआ, यह चमत्कार है। 

KK@Shah-e-Hamdan


मैंने महसूस किया कि कश्मीर के लोगों में यहां के सूफी संतों के लिए अपार श्रद्धा है। हम डाउन टाउन की तंग गलियों को पार कर शाह-ए-हमदान पहुंच गए थे। दरगाह के बाहर लोग कबूतरों का दाना बेच रहे थे। हमने भी दाना ख़रीदा। मज़ार के बाहर इंडियन आर्मी का बंकर बना हुआ था। हाथ में रायफल लिए मुस्तैदी से तैनात जवान किसी अनहोनी की आशंका में रात दिन यहां खड़े रहते हैं। मेरी नज़र उस जवान से मिली मैंने एक सम्मान भरी मुस्कान से उस जवान को अभिवादन किया और दरगाह में चली गई। दरगाह में चहल पहल थी। मैंने इधर उधर नज़र दौड़ा कर जायज़ा लिया। कश्मीर के अलावा भारत भर में पाए जाने वाली दरगाहों पर सप्ताह के किसी एक दिन लोग ज़्यादा दिखाई देते हैं। या फिर बाहर से आने वाले श्रद्धालु दिख जाते हैं लेकिन यहां का मंज़र थोड़ा अलग था। यहां बाहर से आने वाले सिर्फ हम थे बाक़ी जितने भी थे सब लोकल लोग थे और जिस तरह वह दरगाह में आ जा रहे थे उससे लग रहा था कि यहां यह लोग रोज़ ही आते होंगे। श्राईन में जाना इनके जीवन का हिस्सा है। मैं लगभग 10-15 सीढ़ियां उतर कर दरगाह के प्रांगण में पहुंच गई। महिलाओं का अंदर जाना माना है। मैंने बाहर से ही ज़्यारत की।शाह-ए-हमदान की चौखट पर ज़ंजीरों से एक पीतल का पेन्डेन्ट जैसा लटका हुआ था जिसे आने जाने वाले पकड़ कर अपनी मुरादें मांग रहे थे। मैंने भी ख़ुदा के दरबार में हाथ उठा कर इस हसीन वादी में अमन और चैन के लिए अपनी अर्ज़ी लगा दी। शाह-ए-हमदान लकड़ी की नक्कारशी से बानी हुई एक खूबसूरत ईमारत है। इसके बिलकुल पीछे झेलम नदी बह रही है। ईमारत के प्रांगण में एक ऊंचे चबूतरे पर कबूतरों को दाना खिलाने की जगह है। इस प्राचीन ईमारत को बेहतर रखरखाव की ज़रूरत है। 


 
मेरा अगला पड़ाव है दस्तगीर साहेब। 
 दस्तगीर साहेब देखने के लिए मैं बहुत उत्साहित थी। यह श्राइन शाह-ए-हमदान से नज़दीक ही है। यह बाजार के बीचों बीच बनी हुई है। ऐसा माना जाता है कि इस दरगाह की ज़ियारत करने से सारे दुःख दर्द दूर हो जाते हैं,मन की मुराद पूरी होती है। इस दरगाह में स्त्री पुरुष दोनों जा सकते हैं। यहां फोटो खींचने के लिए इजाज़त लेनी होती है। मैं जब इस दरगाह में पहुंची तो वहां बहुत सारी कश्मीरी महिलाऐं जमा थीं। वह कागज़ की पर्चियों पर अर्ज़ियाँ लिख कर दरगाह की जालियों में बांध रही थीं। एक अजीब रुदन का माहौल था। महिलाओं के चेहरे आंसुओं से भीगे हुए थे। पूरा माहौल शोक से भरा हुआ था। इन दर्द में डूबी हुई तस्वीरों को क़ैद करने की हिम्मत मुझ मे न थी। 

An old Man Praying


यहां आकर मुझे अहसास हुआ कि कश्मीरी लोगों के जीवन में इन दरगाहों का इतना महत्व क्यों है। क्यूंकि इनके जीवन में दुःख है, अपनों से बिछड़ने का दर्द है, किसी के लौट कर आने का इन्तिज़ार है। 
आंसुओं के इस सैलाब को देख मेरा मन भारी हो गया और मैंने ख़ामोशी से वापसी की राह ली। यह था कश्मीर का एक और रंग … 
आप ऐसे ही बने रहिये मेरे साथ.…
हिमालय के अनेक रूपों में से एक के साथ… 
कल हम चलेंगे डाउन टाउन में बनी जामा मस्जिद देखने।
तब तक के लिए खुश रहिये और घूमते रहिये। 

आपकी हमसफर आपकी दोस्त 

डा ० कायनात क़ाज़ी 



3 COMMENTS

  1. प्रिये महेश जी,
    जब मैं कश्मीर जाने के लिए प्लान कर रही थी तब मेरे फोटोग्राफी से जुड़े हुए मित्रों ने मुझे चेतावनी भी दी थी कि मैं वहां न जाऊं, और फिर डाउन टॉउन में तो भूल कर भी न जाऊं, लेकिन एक राष्ट्रवादी होने के नाते मुझे यह स्वीकार न था.मेरे पूरे देश में ऐसी भी कोई जगह हो सकती है जहां न जाया जाए। मैं यह देखना चाहती थी। और आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जब मैं वहां गई तो सब कुछ सामान्य था।
    यह जो डर है यह सिर्फ हमारे भीतर होता है, ज़रूरत है तो इसपर विजय पाने की।
    मैं देश भर में घूमती हूं और मुझे गर्व है कि भारत में अच्छे लोगों की कोई कमी नहीं है। लोग मददगार होते हैं। उनके घर और दिल हमेशा लोगों के स्वागत के लिए खुले होते हैं। जोकि धर्म ,नस्ल और भाषा की सरहदों के पार है। फिर चाहे वह कश्मीर की आदिवासी जनजाति बुग्गयाल हो, या फिर पॉन्डिचेरी के तमिल भाषी लोग हों।
    जय हिन्द,जय भारत !!!

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