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कलरीपायट्टु – प्राचीन भारतीय युद्धकला

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फोर्ट कोचीन में ऐसे कई संगठन और केंद हैं जो इस राज्य और नज़दीकी राज्यों में पाई जाने वाली कलाओं के संरक्षण में लगे हैं साथ ही वह इस कला को जीवित रखने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं इसी कड़ी में नाम आता है कोचीन सांस्कृतिक केन्द्र Cochin Cultural Centre, यह एक ऐसा स्थान हैं जहाँ एक छत के नीचे है आपको कई कलाएं देखने को मिल जाएंगी। जैसे कथकली, मोहिनीअट्टम, भरतनाट्यम और कलरीपायट्टु।

कोचीन सांस्कृतिक केन्द्र Cochin Cultural Centre फोर्ट कोच्ची बस स्टैण्ड के बराबर, संगमम माणिकथ रोड पर स्थित है। यहाँ हर रोज़ शाम को यह नाट्य प्रस्तुतियां की जाती है। मेरी पिछली पोस्ट में अपने कथकली के बारे में जाना, इस पोस्ट में हम प्राचीन युद्धकला कलरीपायट्टु के विषय में जानेंगे। यह सारी प्रस्तुतियां एक के बाद एक की जाती हैं। आपके पास यह विकल्प होता है कि आप केवल एक नृत्य प्रस्तुति देखना चाहते हैं या कि पूरा कार्यक्रम देखना चाहते हैं। अगर आप पूरा कार्यक्रम देखना चाहते हैं तो शाम 5 बजे से रात 9 बजे तक का समय आपके पास होना चाहिए।

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चलिए हम बात कर रहे थे कलरीपायट्टु, लेकिन कलरीपायट्टु है क्या ? आइये इसके इतिहास पर एक सरसरी नज़र डाल लेते हैं।

इतिहास

ऐसा माना जाता है कि अगस्त्य मुनि ने कलारीपयट्टू युद्ध कला का अविष्कार किया। यहाँ के लोग इस बात से जुड़ी एक कहानी भी सुनाते हैं। अगस्त्य मुनि एक छोटी कद-काठी के साधारण से दुबले पतले और नाटे इंसान थे, । उन्होंने कलरीपायट्टु की रचना खास तौर पर जंगली जानवरों से लड़ने के लिए की थी। अगस्त्य मुनि जंगलों में भ्रमण करते थे। उस समय इस क्षेत्र में काफी तादाद में शेर घूमा करते थे। शेरों के अलावा कई बड़े और ताकतवर जंगली जानवर इंसानों पर हमला कर देते थे इन हमलों से अपने बचाव के लिए अगस्त्य मुनि ने जंगली जानवरों से लड़ने का एक तरीका विकसित किया। जिसे नाम मिला-कलारीपयट्टू। इस क्रम में एक और ऋषि का नाम आता है जिन्हें हम परशुराम कहते हैं। मुनि परशुराम ने इस कला को सामरिक युद्ध कला से जोड़ा और इसके बल पर अकेले ही कितनी ही सैनाओं को हराया। परशुराम ने ही इस कला में शस्त्रों को जोड़ा। परशुराम की शिक्षा प्रणाली में सभी प्रकार के हथियारों का प्रयोग किया जाता है, जिसमें हाथ से चलाए जाने वाले शस्त्र, फेंकने वाले शस्त्र के साथ कई तरह के शस्त्र शामिल हैं। इन हथियारों में लाठी मुख्य रूप से प्रयोग में लाई जाती है।

 यह केरल राज्य की प्राचीनतम युद्ध कला है। ऐसा भी कहा जा सकता है कि यह एक ऐसी प्राचीनतम युद्ध कला है जो अभी तक जीवित है, जिसका श्रेय यहाँ के लोगों को जाता है जिन्होंने इसे अभी तक जीवित रखा है। केरल की योद्धा जातियां जैसे नायर और चव्हाण ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई है। यह जातियां केरल की योद्धा जातियां थी जोकि अपने राजा और राज्य की रक्षा के लिए इस युद्ध कला का अभ्यास किया करती थीं। कलरीपायट्टु मल्लयुद्ध का परिष्कृत रूप भी माना जाता है। इतिहासकार एलमकुलम कुंजन पिल्लै कलारी पयट के जन्म का श्रेय 11 वीं शताब्दी में चेर और चोल राजवंशों के बीच लम्बे समय तक चले युद्ध को देते हैं।

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कैसे मिला नाम ?

कलरीपायट्टु शब्द अपने आप में इस कला का बखान करता है, यह शब्द दो शब्दों को जोड़ कर बना है। पहला “कलारी” जिसका मलयालम में अर्थ होता है व्यायामशाला है, तथा दूसरा “पयाट्टू” जिसका अर्थ होता है युद्ध, व्यायाम या “कड़ी मेहनत करना”

इतिहास में नायर और चव्हाण लोग अपने बच्चों को छोटी उम्र में ही विद्या अर्जन के लिए भेज देते थे जहाँ उन्हें दिन में दो बार “कलरीपायट्टु” का अभ्यास करवाया जाता था। कम उम्र होने के कारण उन बच्चों का शरीर अत्यन्त कोमल होता था और प्रकृति के विपरीत मुड़ जाता था जिसके निरंतर अभ्यास से उनका शरीर इतना लचीला बना कि बिजली की सी तेज़ी से प्रहार करने और खुद को बचाने की कला उनमे रच बस गई। एक बार शरीर पूरी तरह तैयार हो जाने पर इन बच्चों को लाठी और हथियारों का प्रशिक्षण दिया जाता।

कलारीपयाट्टू की कई शैलियाँ हैं, जैसे उत्तरी कलारीपयाट्टू, दक्षिणी कलारीपयाट्टू, केंद्रीय कलारिपयाट्टू। ये तीन मुख्य विचार शैलियाँ अपने पर हमला करने और और सामने वाले के हमले से स्वयं को बचाने के तरीकों से पहचानी जाती हैं। इन शैलियों का  सम्बन्ध दक्षिण के अलग-अलग क्षेत्रों से है। जैसे:

दक्षिणी कलारीपयाट्टू

दक्षिणी कलारीपयाट्टू का सम्बन्ध त्रावणकोर से माना जाता है, इस शैली में हथियारों का प्रयोग वर्जित है यह स्कूल केवल खाली हाथ की तकनीक पर जोर देता है।

उत्तरी कलारीपयाट्टू

उत्तरी कलारीपयाट्टू जिसका सम्बन्ध मालाबार से है यह शैली खाली हाथों की अपेक्षा हथियारों पर अधिक बल देता है।

केंद्रीय कलारिपयाट्टू

केंद्रीय कलारिपयाट्टू का सम्बन्ध केरल के कोझीकोड, मलप्पुरम, पालाक्काड, त्रिश्शूर और एर्नाकुलम से है, इस पद्धति में दक्षिणी और उत्तरी शैली का मिलाजुला रूप देखने को मिलता है। यहाँ कोचीन सांस्कृतिक केन्द्र में इन तीन मुख्य शैलियों का प्रदर्शन किया जाता है।

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इस युद्ध कला को टीवी पर देखना और साक्षात् सामने से देखने में बहुत फ़र्क़ है। इन कलाकारों के दांव पेच देखने लायक हैं। बिजली सी तेज़ी और फुर्ती, कमाल का लचीलापन। लगता है जैसे शरीर में हड्डी ही न हो। कम उम्र के यह नौजवान अपनी कला में बड़े माहिर हैं। लोमड़ी सी चतुराई और चीते सी फुर्ती पलक झपकते ही सामने वाले को धराशायी कर देती है।

आप केरल जाएं तो ज़रूर देखें। आप कहीं मत जाइयेगा ऐसे ही बने रहिये मेरे साथ, भारत के कोने कोने में छुपे अनमोल ख़ज़ानों में से किसी और दास्तान के साथ हम फिर रूबरू होंगे।

तब तक खुश रहिये और घूमते रहिये।

आपकी हमसफ़र आपकी दोस्त

डा ० कायनात क़ाज़ी

 

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